निसार उन के जाएँ जो सच जाने उस को
फसाना हमारा, जबानी तुम्हारी
यह शेर नसीम देहलवी जी ने कहा है और यहां इस का जिक्र कुछ भी बोल देने की आदत से लाचार उन महानुभावों के लिए है जो बयानबाजी करते वक्त भूल जाते है कि फ़सानों के पांव नहीं होते वे हवा की माफिक फिजां में तैरते है. किसी वायरस की माफ़िक लोगों के जे़हन में धर कर जाते है. कहना तो आप कुछ चाहते है और कह कुछ जाते है. यानी जनमा के मनोभावों को अपनी आवाज देने के फेर में विवाद का मौजूं खड़ा कर देते है. अब कभी-कभी तो ये आपके हित में हो जाता है लेकिन अक्सर आपका अहित कर जाता है. जैसे हाल में सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव का वैक्सीन को लेकर दिये गये बयान को ही ले लें.
केरोना टीके पर सियासत होना लाजिमी था. लेकिन क्या ये मुफ़ीद नहीं होता कि वैक्सीन पर जनता को गुमराह करने के बजाय हम उसको लेकर सावधानियां बरतने या फिर उसको लेकर लोगों को जागरूक करने का प्रयास करते है. अखिलेष यादव को भाजपाई वैक्सीन में खामियां नजर आती है इसलिए उन्होंने ने जनता को चेताने के लिए कह दिया मैं तो नहीं लगाऊंगा भाई. जाहिर सी बात है लोगों की सुरक्षा की चिंता आपको होती होगी, हमें इसका यकीं भी है लेकिन सवाल मेरा ये है कि अक्सर विपक्ष में आने के बाद ही क्यों आप नेताओं को जनता का सबसे ज्यादा ख़्याल या यूं कहें चिंता होती है? मानती हूं विपक्षियों का आवाज उठाना सही है लेकिन जन-साधारण से जुड़ी चीजों की खिलाफ़त ठीक नहीं. सरकार की नीतियां से आप इत्तिफ़ाक न रखते हों तो अवश्य आवाज़ बुलंद करें. आखिरकार ये अधिकार भी आपको आपके संविधान ने दे ही रखा है.
अखिलेष के इस बयान पर कि उन्हें भाजपाई कोरोना की वैक्सीन पर भरोसा नहीं इसलिए वे इसे नहीं लगाएंगे, उन्हीं की परिवार की सदस्या, राजनैतिक और सामाजिक क्षेत्र की एक्टिव मेंबर अपर्णा यादव कहती है कोरोना की इमरजेंसी यूज के लिए मंजूर की गई कोरोना वायरस वैक्सीन को किसी पॉलिटिकल पार्टी से नहीं जोड़ा जाना चाहिए. वैक्सीन पूरे विश्व के लिए है. यह किसी राजनीतिक पार्टी से संबंधित नहीं है. अखिलेश यादव का यह बयान भारत के वैज्ञानिकों और डॉक्टर्स की बेइज्जती करना है.
अब आप ही कहें जब आपके अपनों को ले बात समझा से परे लगी तो जनता को तो बेतुकी लगनी ही थी. कोई भी वैक्सीन किसी पार्टी की कैसे हो सकती है. अमेरिका में फाइजर वैक्सीन पर काम रिपब्लिकन के समय आरंभ हुआ और अब जब लगाई जा रही है तो सत्ता डेमोक्रेटस के हाथ में है तो क्या वहां भी उसे ये कह कर खारिज नहीं किया जाना चाहिए कि ये तो रिपब्लिकन वैक्सीन है और हमें इस पर भरोसा नहीं. वहां अगर वैक्सीन का विरोध अगर है भी तो सरकार की नीतियों पर है उसकी पार्टी या उसकी पार्टी की वैक्सीन पर नहीं. दरअसल वैक्सीन का पूरा मामला किसी पार्टी विशेष का नहीं बल्कि मेडिकल कम्यूनिटी और डाक्टर के बीच का हैं.
अखिलेश यादव भूल रहे है कि 2022 के चुनाव कुछ महीनों की दूरी पर है और ऐसे बयान उनकी लोकप्रियता को कम करते है. कभी-कभी जो काम मीठे बोलों और आपकी समझदारी से संभव होता है वो तीखे और कटाक्ष भरी बातों से नेस्तनाबूंद होने मंे भी देरी नहीं लगाता. मुझे तो कभी-कभी उनके दिए बयानों से ऐसा महसूस होता है जैसे वे मान कर बैठ गये है कि 2022 की सत्ता उन्हें नहीं मिलने वाली अन्यथा वे संभल कर चलना प्रिफर करते. इधर दिए गए उनके बयान उन्हें कुछ चापलूसों का नेता बनाते होगें जनता का नहीं. जनता का नेता बनने के लिए जनता के बीच होना होता है. लाल टोपी पहन या पहनवाकर आये दिन की बैठकी आपको सोशल मीडिया पर एक्टिव तो दिखाती है लेकिन जनता का हमदर्द साबित नहीं करती. लाल रंग क्रांति का प्रतीक है और क्रांति रंग नहीं उम्मीद का परचम लहराती है.
मैं कोई भाजपा मुरीद नहीं लेकिन एक बेहतर विपक्ष की जरूर आकांक्षी हूं. और सच कहूं तो मैं ही नहीं मेरे साथ जुड़े लोग भी ये देखने को आतुर है कि कब सपा एक मजबूत विपक्ष के तौर पर उत्तर प्रदेश की नुमांइदगी करती दिखेगी. सत्ता पक्ष को विपक्ष का भय होना चाहिए. जनता के बीच विपक्ष की लोकप्रियता ही सत्ता पक्ष और अधिक एक्टिव बनाती है. ऐसे में वे काम भी मुमकिन हो जाते है जो बरसों से कर नहीं हो पा रहे थे. लेकिन ऐसी स्थिति लाने के लिए आपका जनता से साबका होना जरूरी है और बड़़बोलेपन पर लगाम लगाना तो कहीं ज्यादा आवश्यक हो जाता है. अख़्तर अंसारी ने ठीक ही फरमाया है-
जिस को दुनिया ज़बान कहती है
उस को जज़्बात का कफ़न कहिए