बिहार विधान सभा के चुनाव ने यह भी साबित किया है कि भाजपा की रणनीति के सामने विरोधी दलों को और विरोधी दलों का हिरावल दस्ता, लगभग 135 वर्षों के अनुभव और विरासत का दम भरने वाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (इन्दिरा) को अभी बहुत कुछ सीखना बाकी है. ह्त्या और बलात्कार जैसे मामलों पर कांग्रेस के राहुल और प्रियंका की दोरंगी नीति, दोहरी चाल, एकांगी सोच को लोगों ने समझा.  राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे विराट संगठन के समर्थन की ताकत का अंदाज लगाने में चूक गया विपक्ष. विपक्ष “नितीश भगाओ, बिहार बचाओ” का शोर मचाता रहा और ‘संघ’ चुपचाप अपना काम करता रहा. इस परिप्रेक्ष्य में जो होना चाहिए था वही हुआ है इस चुनाव परिणाम में. कुछ-न-कुछ जीत सभी को मिली है. लेकिन एक दल के रूप में भाजपा इस चुनावी समर का सबसे बड़ी विजेता बन कर उभरा है. लोक जनशक्ति पार्टी के चिराग पासवान का अब क्या होगा और वे आगे क्या करेंगे, यह समय आने पर पता चलेगा. किन्तु भाजपा ने जिस सूझ-बूझ के साथ अपनी विजय यात्रा का सूत्रीकरण किया था वह अब साफ़ हो चुका है. असल में यह चुनाव भाजपा द्वारा एक तीर से अनेक शिकार करने का अभूतपूर्व उदाहरण और राजनैतिक विशेषज्ञों के लिए दिलचस्पी का विषय होना चाहिए. चिराग पासवान का नितीश कुमार के विरुद्ध होना और भाजपा का लगातार समर्थन करते रहना तथा एनडीए में बिहार में सबसे बड़ा विधायक दल होने के बावजूद भाजपा द्वारा नितीश कुमार को मुख्य मंत्री बनाने की घोषणा भी भाजपा के दूरगामी लक्ष्य का ही हिस्सा है. 

इस बीच दूसरी सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि नयी सरकार को आगे क्या करना चाहिए. जहां तक एनडीए का सवाल है तो भाजपा की हर रणनीति और कदम 2024 के लोक सभा चुनाव के लिए निर्देशित है. इस नाते बिहार में महज एक सीट से पिछड़ कर दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनना एक बड़ी उपलब्धि है. अगले साल बंगाल में चुनाव होने हैं. उस चुनाव पर बिहार के चुनावी नतीजे का असर होना स्वाभाविक है. परन्तु, यह तभी कारगर हो सकेगा, जब सातवीं बार बिहार के मुख्य मंत्री बन रहे नितीश कुमार बिहार में जो कमियाँ हैं, जिन मुद्दों पर लोगों ने चुनाव प्रचार के दौरान अपना आक्रोश व्यक्त किया है, उन पर कितना और कैसे काम करते हैं. भाजपा की साख भी बिहार में इसके गठबंधन सरकार के प्रधान, नितीश कुमार के कार्यों से ही बनेगी. सो भाजपा के सामने दो तरह के दायित्व होंगे. एक तो अपने गठबंधन को अटूट रखना और दूसरे बिहार में शान्ति, प्रगति और उन्नति का नया अध्याय लिखना. सरकारी अस्पतालों की हालत दयनीय है. प्रखंड स्तर तक सरकारी काम-काज में भ्रष्टाचार में कोई कमी नहीं आई है. किसानों की हालत तो सबसे अधिक खराब है. ऐसे में केवल खैरात और अनुदान के सहारे बिहार को आत्मनिर्भर नहीं बनाया जा सकता. चुनाव अभियान के दौरान आत्मनिर्भर बिहार, स्वयं प्रधान मंत्री का भी नारा था. आत्मनिर्भर बिहार का अर्थ यह होना चाहिए कि बिहार के आम लोग अपने पैरों पर खड़े हों, उन्हें अपने जीवन-यापन के लिए किसी खैरात या अनुदान की बाट नहीं जोहनी पड़े. वे अपने उपार्जन से अपना परिवार चला सकें, देश के आर्थिक विकास में अंशदान कर सकें और समाज को प्रतिदान दे सकें. यह बहुत बड़ा लक्ष्य है और इस लक्ष्य की दिशा में सधे-सार्थक कदम ही 2024 में लोक सभा में एनडीए की मदद कर सकेगा. बिहार की कुछ फौरी समस्याएं हैं. भाजपा को अगर बिहार से अधिकतम लाभ हासिल करना है और आरजेडी गठबंधन की धार कुंद करते हुए बिहार की राजनीति और शासन संचालन में शीर्ष स्थान हासिल करना है, तो उन फौरी समस्याओं पर फ़ौरन ध्यान देना होगा, उनका समाधान करना होगा. ये समस्याएं जीवन-यापन के अलग-अलग क्षेत्रों की हैं. संक्षेप में एक सरसरी नजर उन समस्याओं पर डालते हैं. 

कृषि : बिहार भारत में भूमि सुधार क़ानून क़ानून लागू करने वाला प्रथम राज्य के गौरव से सम्मानित है. फिर भी यहाँ कृषि की हालत अत्यंत दयनीय है. सरकारी कृषि विभाग कागजी शेर बन कर रह गया है और राज्य के किसान भगवान् भरोसे खेती कर रहे हैं. राज्य के आम लोग जिस बात को जानते हैं, उसे सरकार नहीं जानती होगी यह विश्वास करना कठिन है. फिर भी उत्तर बिहार के नेपाल से सटे गाँव के किसान अपना गन्ना कहाँ बेच रहे हैं और क्यों बेच रहे हैं, इस पर कृषि विभाग की कोई सोच या योजना नहीं है. बिहार के गन्ना उत्पादक किसानों के पैसे वर्षों से चीनी मिल के पास बकाया पड़े हुए हैं. उधर कहीं से कोई बिचौलिया आता है और खेत में में नकद भुगतान कर गन्ना उठा लेता है. किसान एकमुश्त तत्काल नकद के लोभ में सस्ते में बिहार का गन्ना बेच रहा है, दूसरे देश के दलाल उसे सस्ते में खरीद रहे हैं और मुनाफ़ा बिहार के बदले दूसरे देश में जा रहा है. खरीफ की खेती करने वाले किसान एक तो निजी बीज कंपनियों की माफियागिरी के शिकार हैं तो दूसरे ओर ओलावृष्टि और बाढ़ की मार झेलने को मजबूर हैं. स्वतन्त्रता प्राप्ति के 70 साल बाद भी बिहार के तिरहुत और दरभंगा प्रमंडल के सैकड़ों गावों की खेती बाढ़ की भेंट चढ़ जाती है. फसल की बिक्री में बिचौलियों और दलालों का बोलबाला समाप्त नहीं किया जा सका है. नतीजतन, लघु और सीमान्त किसानों का जीवन कृषि से चलना मुश्किल हो जाता है और वे पलायन को मजबूर होते हैं. भाजपा को कृषि के क्षेत्र में इन सारी समस्यायों का समाधान ढूंढना होगा. 

शिक्षा :  बिहार के विद्यार्थियों की कुल संख्या में लगभग 70 प्रतिशत विद्यार्थी सरकारी विद्यालयों में पढ़ते हैं. आप बिहार का एक बार भ्रमण कर आयें. विद्यालयों के भवन जैसे-तैसे बना दिए गए हैं, लेकिन कोई रख-रखाव नहीं है. पठन-पाठन के कोई संसाधन नहीं हैं, विज्ञान संकायों के प्रयोगशालाओं की तो बात ही न कीजिये. बच्चों के सर्वांगीण विकास के कोई इंतजाम सरकारी स्कूलों में नहीं हैं. राज्य प्रशासन में जिला का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है. जिस प्रकार जिलाधिकारी होते हैं, जिला अस्पताल होते हैं, उसी प्रकार हर जिले में जिला स्कूल की व्यवस्था की गयी थी. पुराने जिलों में तो अंग्रेजों के जमाने ही में जिला स्कूल बने, जो अपने-अपने जिले के प्रधान स्कूल होते थे. उनका अपना अलग स्थान था, अलग सम्मान था. बाद के वर्षों में नए जिले तो बने, वहाँ जिला समाहरणालय, जिला आरक्षी कार्यालय आदि तो बने, लेकिन जिला स्कूल नहीं बने. जो पुराने भव्य भवनों वाले जिला स्कूल हैं भी, उनकी अवस्था इतनी दयनीय है कि बिहार के मंत्री की बात तो छोडिये, कोई विधायक भी अपने बच्चों का नामांकन उन स्कूलों में नहीं कराता. बिहार की शिक्षा व्यवस्था की यह कितनी बड़ी विडम्बना है कि सरकारी स्कूलों में लाख-सवा लाख रुपये वेतन पाने शिक्षकों के बच्चे भी सरकारी स्कूलों में नहीं, बल्कि प्राइवेट स्कूलों में पढ़ रहे हैं. सरकारी स्कूलों में खेल-कूद, पुस्तकालय, प्रयोगशाला आदि का घोर अभाव है. बिहार के भविष्य के लिए यह एक बड़ी चुनौती है. सम्पूर्ण भारत में, सुनते हैं, सबसे अधिक पीएच.डी. बिहार के विश्वविद्यालय से हैं और बिहार के किसी भी विश्वविद्यालय से प्रकाशित एक भी शोध पत्र बाज़ार में पुस्तक के रूप में दिखाई नहीं देती है. भाजपा सरकार को बिहार की सम्पूर्ण शिक्षा व्यवस्था को नए सिरे से सुधारना होगा. 

रोजगार : आजीविका के लिए पलायन बिहार की एक बड़ी समस्या है. तो दूसरे ओर बृहत् से लेकर लघु और कुटीर स्तर तक हज़ारों की संख्या में उद्योग-धंधे बंद पड़े हैं. पिछले 15 वर्षों में इस दिशा में चमत्कार पैदा किया जा सकता था. लेकिन नितीश कुमार ने भूमि अधिग्रहण पर उठे शोर को बिहार की भावना मान ली और पैर पीछे खींच लिए. यहाँ तक कि जिन उद्योगों के लिए एक धुर भी भूमि अधिग्रहण की ज़रुरत नहीं थी, यानी कि बंद पड़े कारखाने, उन्हें चालू कराने के लिए भी कोई कदम नहीं उठाये गए हैं. पूरे उत्तर बिहार में रेलवे के सोनपुर और समस्तीपुर मंडल में रेललाइन बगल में चीनी मीलों के खंडहरों की कतार आज भी खड़ी हैं. मोतीपुर चीनी मिल का ही उदाहरण लें तो उस मिल की हज़ारों एकड़ गन्ना उत्पादक भूमि आज भू-माफियाओं से अपनी हिफाजत के लिए छटपटा रही है. लाखों लोगों को रोजगार देने वाले बीसियों औद्योगिक प्रक्षेत्र वीरान पड़े हैं, जहां कभी बिहार का आर्थिक भविष्य के निर्माण की गूँज सुनाई देती थी. मुजफ्फरपुर में बिहार राज्य खादी ग्रामोद्योग संघ का मुख्यालय कभी चमड़ा उद्योग, साबुन उद्योग, वस्त्र उद्योग, काष्ठ उद्योग, खाद्य तेल, ताड़ का नीरा और लघु एवं कुटीर उद्योग तथा उद्यम का गहमागहमी भरा केंद्र हुआ करता था. धीरे-धीरे उसकी अवस्था जर्जर होती गयी और पिछले पैतीस-चालीस वर्षों में परवर्ती सरकारों ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया. नतीजतन हज़ारों लोगों को राजोगार मुहैया करने वाला यह संस्थान आज भूमाफियाओं के आकर्षण का केंद्र बना हुआ है और उत्पादन की सारी गतिविधियाँ दसकों से बंद पड़े होने के कारण अलग-अलग बाहरी संस्थानों के भाड़े के गोदाम बन गए हैं. प्रधान मंत्री द्वारा खादी को पुनर्जीवित करने के अभियान के बाद भी इस संस्थान पर ताला लगा है. बिहार में भरपूर संभावना है, जिसका प्रयोग करके सरकार बिहार में बंद पडी चीनी मीलों, विभिन्न औद्योगिक प्रांगणों बंद पड़े लघु उद्योगों का अधिग्रहण कर सकती है या उन्हें श्रमिको की सहकारी समितियां बनवाकर उनके हवाले कर सकतीं हैं. यह बिहार में लाखों लोगों के लिए रोजगार का सशक्त साधन बन सकता है. इसके अलावा शिल्पकारी और कारीगरी के अन्य काम-धंधों के संसाथान पैदा करके युवाओं को रोजगार से जोड़ा जा सकता है और बिहार की आत्मनिर्भरता की दिशा में ले जाया सकता है. भाजपा सरकार को इस दिशा में कदम बढ़ाना चाहिए. 

कम-से-कम इन तीन क्षेत्रों में ईमानदारी से काम किया जाए तो बिहार को इतनी जीवनी-शक्ति मिल जायेगी कि बाकी चीजें वह स्वतः और स्वयं हासिल कर लेगा. बिहार में क्षमताओं और संभावनाओं की कमी नहीं है. बिहार कभी भारत का एक सम्मानित राज्य हुआ करता था. 1995 के बाद के डेढ़ दसक बिहार के पतन के वर्ष थे, इस पर कोई विवाद नहीं है. इस पतन का अहसास इस पतन के सूत्रधारों और उनके वंशजों को भी भी है, जिसका असर चुनाव प्रचार के दौरान उनके भाषणों के बदले सुर और स्वर में परिलक्षित हुआ. चुनाव प्रचार के दौरान एक और तथ्य परिलक्षित हुआ कि अनेक प्रकार के आलोचनाओं और हमलों के बावजूद भाजपा के सर्वमान्य नेता और भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर लोगों का भरोसा कायम है. गावों के साधारण पुरुष और स्त्री भी उनके बातों पर भरोसा करते हैं. उनके व्यक्तित्व और चारित्रिक नैतिकता पर अंगुली उठाने का साहस कोई नहीं कर पाया है. बिहार के संभावित मुख्य मंत्री नितीश कुमार व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा और प्रधान मंत्री से अपनी प्रतिद्वंद्विता से बाहर निकल कर प्रधान मंत्री के मास अपील का लाभ उठा सकें तो वे निश्चित ही इस चौथे शासन काल में बिहार के इतिहास पुरुष और विकास पुरुष बन सकते हैं. इसका फ़ायदा उन्हें भी होगा, सम्पूर्ण एनडीए गठबंधन को भी होगा और सबसे बढ़कर बिहार की जनता को होगा. 

वरना, सनद रहे, लोकतान्त्रिक राजनीति में कोई सरकार स्थायी नहीं होती.