गुरु प्रदोष व्रत शत्रुओं के विनाश के लिये किया जाता

गुरु प्रदोष व्रत शत्रुओं के विनाश के लिये किया जाता

प्रेषित समय :20:28:19 PM / Wed, Apr 27th, 2022

प्रत्येक चन्द्र मास की त्रयोदशी तिथि के दिन प्रदोष व्रत रखने का विधान है. यह व्रत कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष दोनों को किया जाता है. सूर्यास्त के बाद के 2 घण्टे 24 मिनट का समय प्रदोष काल के नाम से जाना जाता है. प्रदेशों के अनुसार यह बदलता रहता है. सामान्यत: सूर्यास्त से लेकर रात्रि आरम्भ तक के मध्य की अवधि को प्रदोष काल में लिया जा सकता है.

ऎसा माना जाता है कि प्रदोष काल में भगवान भोलेनाथ कैलाश पर्वत पर प्रसन्न मुद्रा में नृ्त्य करते है. जिन जनों को भगवान श्री भोलेनाथ पर अटूट श्रद्धा विश्वास हो, उन जनों को त्रयोदशी तिथि में पड़ने वाले प्रदोष व्रत का नियम पूर्वक पालन कर उपवास करना चाहिए.

यह व्रत उपवासक को धर्म, मोक्ष से जोडने वाला और अर्थ, काम के बंधनों से मुक्त करने वाला होता है. इस व्रत में भगवान शिव की पूजन किया जाता है. भगवान शिव कि जो आराधना करने वाले व्यक्तियों की गरीबी, मृ्त्यु, दु:ख और ऋणों से मुक्ति मिलती है.

प्रदोष व्रत की महत्ता

शास्त्रों के अनुसार प्रदोष व्रत को रखने से दो गायों को दान देने के समान पुन्य फल प्राप्त होता है. प्रदोष व्रत को लेकर एक पौराणिक तथ्य सामने आता है कि " एक दिन जब चारों और अधर्म की स्थिति होगी, अन्याय और अनाचार का एकाधिकार होगा, मनुष्य में स्वार्थ भाव अधिक होगी. तथा व्यक्ति सत्कर्म करने के स्थान पर नीच कार्यो को अधिक करेगा.
उस समय में जो व्यक्ति त्रयोदशी का व्रत रख, शिव आराधना करेगा, उस पर शिव कृपा होगी. इस व्रत को रखने वाला व्यक्ति जन्म- जन्मान्तर के फेरों से निकल कर मोक्ष मार्ग पर आगे बढ़ता है. उसे उत्तम लोक की प्राप्ति होती है.

व्रत से मिलने वाले फल

अलग- अलग वारों के अनुसार प्रदोष व्रत के लाभ प्राप्त होते है.
जैसे सोमवार के दिन त्रयोदशी पडने पर किया जाने वाला वर्त आरोग्य प्रदान करता है. सोमवार के दिन जब त्रयोदशी आने पर जब प्रदोष व्रत किया जाने पर, उपवास से संबंधित मनोइच्छा की पूर्ति होती है. जिस मास में मंगलवार के दिन त्रयोदशी का प्रदोष व्रत हो, उस दिन के व्रत को करने से रोगों से मुक्ति व स्वास्थ्य लाभ प्राप्त होता है एवं बुधवार के दिन प्रदोष व्रत हो तो, उपवासक की सभी कामना की पूर्ति होने की संभावना बनती है.

गुरु प्रदोष व्रत शत्रुओं के विनाश के लिये किया जाता है. शुक्रवार के दिन होने वाल प्रदोष व्रत सौभाग्य और दाम्पत्य जीवन की सुख-शान्ति के लिये किया जाता है. अंत में जिन जनों को संतान प्राप्ति की कामना हो, उन्हें शनिवार के दिन पडने वाला प्रदोष व्रत करना चाहिए. अपने उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए जब प्रदोष व्रत किये जाते है, तो व्रत से मिलने वाले फलों में वृद्धि होती है.

व्रत विधि

सुबह स्नान के बाद भगवान शिव, पार्वती और नंदी को पंचामृत और जल से स्नान कराएं. फिर गंगाजल से स्नान कराकर बेल पत्र, गंध, अक्षत (चावल), फूल, धूप, दीप, नैवेद्य (भोग), फल, पान, सुपारी, लौंग और इलायची चढ़ाएं. फिर शाम के समय भी स्नान करके इसी प्रकार से भगवान शिव की पूजा करें. फिर सभी चीजों को एक बार शिव को चढ़ाएं.और इसके बाद भगवान शिव की सोलह सामग्री से पूजन करें. बाद में भगवान शिव को घी और शक्कर मिले जौ के सत्तू का भोग लगाएं. इसके बाद आठ दीपक आठ दिशाओं में जलाएं. जितनी बार आप जिस भी दिशा में दीपक रखेंगे, दीपक रखते समय प्रणाम जरूर करें. अंत में शिव की आरती करें और साथ ही शिव स्त्रोत, मंत्र जाप करें. रात में जागरण करें.

प्रदोष व्रत समापन पर उद्यापन 

इस व्रत को ग्यारह या फिर 26 त्रयोदशियों तक रखने के बाद व्रत का समापन करना चाहिए. इसे उद्धापन के नाम से भी जाना जाता है.

उद्यापन करने की विधि 

इस व्रत को ग्यारह या फिर 26 त्रयोदशियों तक रखने के बाद व्रत का समापन करना चाहिए. इसे उद्यापन के नाम से भी जाना जाता है.
इस व्रत का उद्यापन करने के लिये त्रयोदशी तिथि का चयन किया जाता है. उद्धापन से एक दिन पूर्व श्री गणेश का पूजन किया जाता है. पूर्व रात्रि में कीर्तन करते हुए जागरण किया जाता है. प्रात: जल्द उठकर मंडप बनाकर, मंडप को वस्त्रों या पद्म पुष्पों से सजाकर तैयार किया जाता है. "ऊँ उमा सहित शिवाय नम:" मंत्र का एक माला अर्थात 108 बार जाप करते हुए, हवन किया जाता है. हवन में आहूति के लिये खीर का प्रयोग किया जाता है.
हवन समाप्त होने के बाद भगवान भोलेनाथ की आरती की जाती है. और शान्ति पाठ किया जाता है. अंत: में दो ब्रह्माणों को भोजन कराया जाता है. तथा अपने सामर्थ्य अनुसार दान दक्षिणा देकर आशिर्वाद प्राप्त किया जाता है.

गुरु प्रदोष व्रत

सूत जी फिर बोले- शत्रु विनाशक-भक्ति प्रिय, व्रत है यह अति श्रेष्ठ . वार मास तिथि सर्व से, व्रत है यह अति ज्येष्ठ ॥

व्रत कथा

एक बार इन्द्र और वृत्रासुर की सेना में घनघोर युद्ध हुआ . देवताओं ने दैत्य-सेना को पराजित कर नष्ट-भ्रष्ट कर डाला . यह देख वृत्रासुर अत्यन्त क्रोधित हो स्वयं युद्ध को उद्यत हुआ . आसुरी माया से उसने विकराल रूप धारण कर लिया . सभी देवता भयभीत हो गुरुदेव बृहस्पति की शरण में पहूंचे . बृहस्पति महाराज बोले- पहले मैं तुम्हें वृत्रासुर का वास्तविक परिचय दे दूं . वृत्रासुर बड़ा तपस्वी और कर्मनिष्ठ है . उसने गन्धमादन पर्वत पर घोर तपस्या कर शिव जी को प्रसन्न किया . पूर्व समय में वह चित्ररथ नाम का राजा था . एक बार वह अपने विमान से कैलाश पर्वत चला गया . वहां शिव जी के वाम अंग में माता पार्वती को विराजमान्देख वह उपहासपूर्वक बोला- ‘हे प्रभो! मोह-माया में फंसे होने के कारण हम स्त्रियों के वशीभूत रहते हैं . किन्तु देवलोक में ऐसा दृष्टिगोचर नहीं हुआ कि स्त्री आलिंगनबद्ध हो सभा में बैठे.’ चित्ररथ के यह वचन सुन सर्वव्यापी शिवशंकर हंसकर बोले- ‘हे राजन! मेरा व्यावहारिक दृष्टिकोण पृथक है . मैंने मृत्युदाता-कालकूट महाविष का पान किया है, फिर भी तुम साधारणजन की भांति मेरा उपहास उड़ाते हो!’ माता पार्वती क्रोधित हो चित्ररथ से संबोधित हुई- ‘अरे दुष्ट! तूने सर्वव्यापी महेश्‍वर के साथ ही मेरा भी उपहास उड़ाया है . अतएव मैं तुझे वह शिक्षा दूंगी कि फिर तू ऐसे संतों के उपहास का दुस्साहस नहीं करेगा- अब तू दैत्य स्वरूप धारण कर विमान से नीचे गिर, मैं तुझे शाप देती हूं .’ जगदम्बा भवानी के अभिशाप से चित्ररथ राक्षस योनि को प्राप्त ओ त्वष्टा नामक ऋषि के श्रेष्ठ तप से उत्पन्न हो वृत्रासुर बना . गुरुदेव बृहस्पति आगे बोले- ‘वृत्तासुर बाल्यकाल से ही शिवभक्त रहा है . अतः हे इन्द्र तुम बृहस्पति प्रदोष व्रत कर शंकर भगवान को प्रसन्न करो.’ देवराज ने गुरुदेव की आज्ञा का पालन कर बृहस्पति प्रदोष व्रत किया . गुरु प्रदोष व्रत के प्रताप से इन्द्र ने शीघ्र ही वृत्रासुर पर विजय प्राप्त कर ली और देवलोक में शांति छा गई . बोलो उमापति शंकर भगवान की जय .

ताम्बूल, दक्षिणा, जल -आरती 

तांबुल का मतलब पान है. यह महत्वपूर्ण पूजन सामग्री है. फल के बाद तांबुल समर्पित किया जाता है. ताम्बूल के साथ में पुंगी फल (सुपारी), लौंग और इलायची भी डाली जाती है . दक्षिणा अर्थात् द्रव्य समर्पित किया जाता है. भगवान भाव के भूखे हैं. अत: उन्हें द्रव्य से कोई लेना-देना नहीं है. द्रव्य के रूप में रुपए,स्वर्ण,
चांदी कुछ की अर्पित किया जा सकता है.

आरती पूजा के अंत में धूप, दीप, कपूर से की जाती है. इसके बिना पूजा अधूरी मानी जाती है. आरती में एक, तीन, पांच, सात यानि विषम बत्तियों वाला दीपक प्रयोग किया जाता है.
Koti Devi Devta

Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-

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