एक असाधारण थ्रिलर है एक्ट 1978

एक असाधारण थ्रिलर है एक्ट 1978

प्रेषित समय :13:16:56 PM / Wed, Apr 28th, 2021

रंग दे बसंती, शाहिद, मदारी, पान सिंह तोमर, और यहां तक कि कोर्टरूम ड्रामा पिंक और मुल्क भी एक आम इंसान की सड़ी गली व्यवस्था और समाज के खिलाफ विद्रोह की कहानी है. कई फिल्में हैं जो इस तर्ज़ पर बनी हैं, लेकिन इन सब में एक नया नाम जोड़ा जाना चाहिए - कन्नड़ फिल्म "एक्ट 1978 (Act 1978)" का.

एक सरकारी दफ्तर की लाल फीताशाही से परेशान गीता (यगना शेट्टी) अपने एक बुजुर्ग साथी शरणप्पा (बी. सुरेश) के साथ उस ऑफिस में घुस कर बन्दूक और कमर पर बंधे बम की मदद से पूरे ऑफिस को बंधक बना लेती है. एक योग्य पुलिस अफसर को इस केस को सुलझाने का काम दिया जाता है जिसे धीमे धीमे ये एहसास होता है कि गलती सरकारी दफ्तर में काम करने वाले घूसखोर कर्मचारियों की है. अपने पति की मौत के बाद गर्भवती गीता, मुआवजे के लिए सरकारी ऑफिस में कामचोर कर्मचारियों के व्यवहार, उनकी घूसखोरी और उनकी काम टालने के नए नए तरीकों से त्रस्त हो कर, सभी को बंधक बना लेती है. परत दर परत पूरा मसला सामने आता है, राजनेता और सरकार के लोग, स्पेशल फोर्स और स्थानीय पुलिस इस केस को सुलझाने में पूरा दम लगा देते हैं.

आखिर में जो होता है, उस क्लाइमेक्स तक पहुंचने में ये फिल्म एक ऐसा सोशल मैसेज दे जाती है जो सभी सरकारी नौकरों को आत्म-मंथन करने पर मजबूर कर देता है. फिल्म की रफ़्तार थोड़ी धीमी है मगर लेखक मंजूनाथ सोमशेखर रेड्डी, दयानन्द और वीरेंद्र मल्लना ने फिल्म को बांध कर रखा है. गांधीवादी तरीके से सत्याग्रह करता एक शख्स फिल्म में रखा गया है जिसके पास कोई डायलॉग नहीं हैं, मगर उसका प्रभाव गांधी के समान ही है. ऑफिस में काम करने वाले प्यून, छोटे बाबू, ,बड़े बाबू, ब्रांच मैनेजर, विधायक और यहां तक कि बम सप्लाई करने वाले का किरदार भी महत्वपूर्ण है. कहानी लिखते वक़्त इस बात का ध्यान रखा गया है कि कोई अविश्वसनीय बात या सीन न हो, कोई फालतू हीरोइज़्म नहीं हो, कोई ऐसा स्टंट या डायलॉग नहीं है जो आम आदमी बोलता न हो.

Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-

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