कलाकार: अभिषेक बच्चन, आदित्य रॉय कपूर, राजकुमार राव, रोहित सराफ, फातिमा सना शेख, सान्या

मल्होत्रा, पर्ल मैनी, इनायत वर्मा और पंकज त्रिपाठी आदि

निर्देशक: अनुराग बसु

ओटीटी: नेटफ्लिक्स

रेटिंग: ***

ओटीटी पर दिखने वाला सिनेमा अब सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अधीन हो चला है. ये फैसला अगर पहले से ओटीटी पर मौजूद सामग्री पर भी लागू हुआ और अनुराग बसु को अपनी फिल्म ‘लूडो’ को सेंसर कराने की नौबत आई तो इसे शायद ‘वयस्कों के लिए’ सर्टिफिकेट के साथ रिलीज होना पड़े. लेकिन, ‘लूडो’ में इस्तेमाल की गईं गालियां और आदित्य रॉय कपूर वाले ट्रैक की गैर जरूरी हरकतें निकाल दें तो ये फिल्म कमाल की है.  सिनेमा अब पारिवारिक और वैयक्तिक हिस्सों में बंट रहा है. और, ऐसी तमाम एडल्ट फिल्में हैं जिन्हें आप अपने बड़े हो चुके बच्चों के साथ देख सकते हैं, लेकिन फिर ‘लूडो’ के लिए ये वैधानिक चेतावनी जरूरी है.

रिव्‍यू: लूडो कहानियों का कॉकटेल है. मसाला है, कॉमेडी का, रोमांस का, ऐक्‍शन का और ड्रामा का. जितनी कहानी उतने पात्र और उतने ही अलग-अलग जॉनर. सत्‍तु भैया (पंकज त्र‍िपाठी) गैंगस्‍टर हैं. उनकी अपनी कहानी है. लेकिन इसके समांतर कई कहानियां हैं. आकाश (आदित्‍य रॉय कपूर) और अहाना (सान्‍या मल्‍होत्रा) एक-दूसरे के साथ हैं. प्‍यार करते हैं. नए जमाने का प्‍यार है. लेकिन दोनों के होश तब उड़ जाते है, जब पता चलता है कि उनका एक सेक्‍स वीडियो क्‍लिप इंटरनेट पर वायरल हो रहा है. कुछ दिन बाद अहाना की शादी भी होनी है. इसलिए उससे पहले सब ठीक करना है. बिट्टू (अभ‍िषेक बच्‍चन) क्रिमिनल है. जेल से छह साल बाद रिहा हो रहा है. रिहाई के बाद उसे पता चलता है कि उसकी पत्‍नी और बेटी अब अपनी-अपनी जिंदगी में आगे बढ़ गए हैं. वह इसी एहसास के साथ आगे बढ़ता है. तीसरी कहानी पिंकी (फातिमा सना शेख) की है. उसे पता चलता है कि उसका पति हत्‍यारा है. वह भाग जाती है. अपने बचपन के प्‍यार आलोक उर्फ अलु (राजकुमार राव) के पास. इस उम्‍मीद में कि वह उसकी मदद करेगा.

इन सभी से अलग कहीं एक कहानी राहुल (रोहित सर्राफ) की है. सेल्‍समैन है और उसके साथ एक नर्स है शीजा (पर्ली माने), दोनों अपने वर्कप्‍लेस पर यातनाएं झेल रहे हैं. लेकिन एक दिन अचानक उनकी जिंदगी बदल जाती है.

'लूडो' मजेदार है. बिल्‍कुल उसी खेल की तरह जो हम बचपन से खेल रहे हैं. एक कैरेक्‍टर की कहानी शुरू होती है, उसका अगला-पिछला बताया जाता है और फिर दूसरे की कहानी शुरू होती है. लेकिन धीरे-धीरे यह किसी पहेली जैसी उलझ जाती है. कई सारे कैरेक्‍टर और कई सारी कहानियों को बांधने की कोश‍िश में अनुराग बसु डोर की कुछ सिराओं पर कमजोर पकड़ के कारण यहां थोड़ा चूकते हैं. हालांकि, उन्‍‍‍‍‍‍‍‍होंने सभी सिराओं को जोड़कर रखने की पूरी कोश‍िश की है.

'लूडो' में ऐसे कई मौके हैं, जब आप रोमांच से भर जाते हैं. कई ऐसे मौके हैं, जब आप खूब हंसते हैं. लेकिन कई ऐसे भी मौके हैं, जब आपको यह बोझिल लगने लगता है. अनुराग बसु स्‍क्रीनप्‍ले को टाइट रखने में थोड़ी और मेहनत कर सकते थे. लेकिन यदि आप संयम रखते हैं और फिल्‍म में आगे बढ़ते हैं तो क्‍लाइमेक्‍स दिल खुश करता है. हर कहानी की डोर को बड़ी सफाई से अंत में बांधा गया है. कुछ सरप्राइज भी हैं और कुछ संदेश भी. यह 'लूडो' अंत में यही कहता है कि कभी किसी को इस बात पर नहीं आंकना चाहिए कि उसने क्‍या चुना है या क्‍या निर्णय किया है.