न्‍यू नॉर्मल भारत में सब कुछ पुराने तरीके से चलेगा तो नया क्‍या होगा. सरकार योजनाएं बनाएगी, अधिकारी उस पर पेपरवेट रखकर बैठ जाएंगे तो काम कैसे चलेगा. लाभार्थी को सरकार की योजनाओं का लाभ मिले, इसकी जिम्‍मेदारी किसी न किसी को उठानी होगी. उठानी भी चाहिए क्‍योंकि सारा काम सरकार करे, यह संभव भी नहीं है. ऐसी स्थिति में उपाय क्‍या है. यह विवाद का विषय भले ही हो मगर सच्‍चाई यह है कि जब तक सरकार और सामाजिक संगठन एक साथ मिलकर काम करना शुरू नहीं करेंगे तब तक न तो देश का और न ही देशवासियों का भला होगा. सुनने में यह बात अटपटी लगती है, मगर हकीकत यही है. जिस दिन सरकार और सामाजिक संगठन मिलकर कदम बढ़ाना शुरू कर देंगे, उस दिन से देश के विकास की रफ्तार में अप्रत्याशित वृद्धि हो जाएगी. इसका स‍कारात्‍मक असर देश के जनमानस पर भी पड़ेगा. दुनिया भर के देशों में व्यवस्थाएँ या तो पूरी तरह सरकार के अधीन हैं, या पूरी तरह निजी हाथों के अधीन. कहीं कुछ गतिविधियों पर सरकार का पूर्ण नियंत्रण है तो कहीं कुछ गतिविधियाँ सरकारी नियंत्रण से पूरी तरह मुक्त हैं. जाहिर है, सरकार और सामाजिक संगठन के सहकार का प्रयोग, हम कह सकते हैं, अब तक किसी भी देश में नहीं किया गया है. मगर जिस दिन किया जाएगा उस दिन जो परिणाम सामने आएंगे, वे विस्‍मयकारी होंगे. समाज के हित में समाज के लिए कल्‍याणकारी योजनाएं बनाना और उसे क्रियान्वित करना सरकार का काम है. जिस दिन समाज अपने लिए बनाई गई सरकारी योजनाओं का क्रियान्‍वयन कराना शुरू कर देगा, उस दिन सरकार और समाज दोनों ही विजेता होंगे. एक-एक कर सारी समस्‍याओं का निराकरण हो जाएगा और हम एक उज्‍जवल एवं सुनहरे भविष्‍य की दिशा में आगे बढ़ना शुरू कर देंगे.

सरकार योजनाएं बनाती हैं और उसके कर्मचारी उन योजनाओं का लाभ जनमानस को मिले, इसका प्रयास करते हैं. होता ऐसे ही है और होना भी ऐसा ही चाहिए. मगर आज तक ऐसा हो नहीं पाया है. यदि ऐसा होता तो हम पिछले 70 वर्षों से गरीबी हटाने के लिए योजनाएं नहीं बना रहे होते. गरीबी शुरू के दस साल में ही खत्‍म हो गई होती. मगर य‍ह संभव नहीं हो पाया और आने वाले दिनों में ऐसा संभव होगा, यह भी नहीं दिख रहा है. इस योजना के असफल होने का कोई कारण तो दिखता नहीं है, मगर कोई न कोई कारण होगा, जिसकी वजह से यह योजना सफल नहीं हो पाई. जहां तक समझ में आता है एकमात्र कारण होता है जिससे कोई योजना सफल नहीं हो पाती है और वह योजना बनाने वाले और उसका क्रियान्‍वयन करने वाले के सोच का अंतर. क्रियान्‍वयन जिनकी जिम्‍मेदारी होती है, वे अपनी जिम्‍मेदारियों का निर्वहन सही ढंग से नहीं करते हैं. गरीबी उन्‍मूलन तो एक उदाहरण मात्र है. विगत 70 वर्षों में इस देश की करोड़ों जनता के लिए लाखों योजनाएं बनी होंगी मगर उन योजनाओं का लाभ चंद हजार लोग ही उठा पाए होंगे. यह कितनी बड़ी विसंगति है. यह कितनी बड़ी त्रासदी है.

ऐसा नहीं है कि योजना बनाने वाले इस त्रासदी के विषय में नहीं जानते हैं. वे जानते सब कुछ हैं, मगर कर कुछ नहीं पाते. जानते हुए कुछ कर न पाने के कारणों की मीमांसा होनी चाहिए. बाधक तत्‍वों की पहचान होनी चाहिए. उन्‍हें उनके किए की सजा मिलनी चाहिए. मगर ऐसा हो नहीं पाता है. नीति निर्धारक लोग अपनी नीतियों के क्रियान्‍वयन के समय इतने लाचार और विवश क्‍यों हो जाते हैं, यह शोध का गंभीर विषय हो सकता है. पूर्व प्रधानमंत्री स्‍व. राजीव गांधी ने एक बार इस लाचारगी और बेचारगी का जिक्र किया था और उन्‍होंने कहा था, “ऊपर से भेजा गया एक रुपया नीचे पहुंचने तक 15 पैसा रह जाता है.” जब तक 85 पैसे का गबन करने वाले लोग हमारे बीच में रहेंगे, तब तक हमारा कल्‍याण नहीं हो सकेगा. ऐसा नहीं है कि राजीव गांधी से पहले इस बात का ज्ञान किसी को नहीं था और ऐसा भी नहीं है कि राजीव गांधी के बाद की सरकारों को इसका भान नहीं है. मगर कहीं कुछ तो ऐसा पेंच फँसा है जिसकी वजह से पूर्ण बहुमत वाली नरेन्‍द्र मोदी की सरकार भी सही ढंग से अपनी योजनाओं का क्रियान्‍वयन नहीं करवा पा रही है. इस पेंच को तलाशना होगा और उसे खोलकर सिस्‍टम से निकालना होगा. नये भारत में प्रवेश करने से पहले इस काम को किया जाना भी जरूरी है. यदि हम ऐसा नहीं कर पएंगे तो नये भारत की कल्‍पना तो दूर पुराने भारत में रहने के लायक भी नहीं बचेंगे.

अब बात आती है कि सामाजिक संगठन किस तरह देश के विकास में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं. इन संगठनों के अलावा बहुत सारे फाउंडेशन भी हैं, जो समाज के विकास में अलग-अलग स्‍तरों पर अपनी भूमिकाएं निभा रहे हैं. ऐसे संगठनों को अपनी सोच के साथ-साथ अपनी कार्यप्रणाली को बदलने की जरूरत है. अब तक हम देखते आए हैं कि कोई भी सामाजिक संगठन किसी एक समस्‍या को लेकर किसी व्‍यक्ति विशेष, समूह विशेष और समुदाय विशेष की मदद करता है. यह मदद तात्‍कालिक होती है. इस तरह की मदद से समस्‍या जड़ से समाप्‍त नहीं हो पाती है. मदद करके मदद करने वाला खुश होता है. जिसको मदद मिलती है, वह भी उस समय खुश हो जाता है. कुछ समय के बाद पता चलता है कि समस्‍या ज्‍यों की त्‍यों बनी रह गई. क्‍योंकि कोई भी सामाजिक संगठन तात्‍कालिक  समाधान पर ध्‍यान देता है, जबकि उन्‍हें अपने कार्यक्रमों की रूपरेखा इस तरह तय करनी चाहिए जिससे उस व्‍यक्ति, समूह अथवा समुदाय के लिए वह समस्‍या हमेशा के लिए खत्‍म हो जाए.

इस तरह की रूपरेखा अथवा कार्यक्रम सतही रूप से नहीं बनाए जा सकते. यह चिंतन का विषय होना चाहिए कि किसी भी समस्‍या को किस प्रकार से सम्पूर्ण मूलोच्छेद किया जा सकता है. इसके लिए हमें समस्‍या की गहराई में जाना पड़ेगा, प्रत्‍येक दृष्टिकोण से उसकी विवेचना करनी होगी. परिणामों को पैमानों की विभिन्‍न कसौटियों पर कसना होगा, तब जाकर कहीं समाधान निकलेगा. मैं यहां पर कुछ उदाहरण देना चाहूंगा, जिससे मैं अपनी बात को समझाने में सफल हो सकूंगा. मुंबई से सटा है पालघर जिला. यह वनवासी बहुल जिला है. इस जिले में लगभग 10,000 लोग ऐसे हैं, जो थक चुके हैं. अब इनसे काम नहीं होता है. इनके परिवार में भी कोई नहीं है, जिनकी कमाई पर इनका गुजर बसर हो सके. ऐसी स्थिति में भोजन का संकट हमेशा बना रहता है. अनेक सामाजिक संस्‍थाएं इस समस्‍या के तात्‍कालिक समाधान के लिए सक्रिय रहते हैं. मगर स्‍थायी समाधान के लिए प्रयास कोई नहीं करता है. ये हमारे देश के नागरिक हैं तो निश्चित रूप से इनके पास आधार कार्ड और राशन कार्ड होना चाहिए. ऐसी स्थिति में सामाजिक संस्‍थाओं के सदस्‍यों को समय देकर इनका राशन कार्ड बनवा देना चाहिए ताकि ये सरकारी योजनाओं का लाभ उठा सकें. यह सामाजिक संगठनों के लिए भी लाभकारी रहेगा. जो राशि इनके अन्‍न भेंट पर खर्च करता था, उसे अब दूसरे जरूरी काम में खर्च किया जा सकेगा.

सरकार इन संस्‍थाओं की सहायता ले तो उसे दोतरफा लाभ हो सकता है. सबसे पहला और सबसे बड़ा लाभ तो यह होगा कि सरकार के प्रबंधकीय खर्चों में घातांक रूप से कमी हो जायेगी और इस बचत का प्रयोग सरकार द्वारा अन्य महत्वपूर्ण जनोपयोगी परियोजनाओं में किया जा सकेगा. भारत का सामाजिक-आर्थिक उन्नयन अगर होना है, तो वह ग्रामीण विकास के रस्ते ही संभव हो पायेगा. प्रोफेसर डी.एस.जाधव के अनुसार, भारत में, विकास का दायरा संकीर्ण नहीं है, बल्कि बहुत व्यापक है, क्योंकि इसमें न केवल आर्थिक विकास, बल्कि सामाजिक मोर्चे पर विकास, जीवन की गुणवत्ता, सशक्तिकरण, महिलाओं और बाल विकास, शिक्षा और अपने नागरिकों की जागरूकता शामिल है। विकास का कार्य इतना विशाल और जटिल है कि समस्या को ठीक करने के लिए सिर्फ सरकारी योजनाओं को लागू करना पर्याप्त नहीं है। इसे प्राप्त करने के लिए, विभिन्न विभागों, एजेंसियों और यहां तक ​​कि सामाजिक संगठनों से जुड़े समग्र दृष्टि और सहयोगात्मक प्रयासों की आवश्यकता है।

सतही तौर पर, ग्रामीण विकास एक साधारण कार्य लगता है, लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। आजादी के बाद के युग ने विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से कई ग्रामीण विकास कार्यक्रम देखे हैं। गरीबी उन्मूलन, रोजगार सृजन, आय सृजन के लिए अधिक अवसर, और सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों के माध्यम से बुनियादी सुविधाओं पर जोर दिया जाता है। इसके साथ ही सरकार द्वारा जमीनी स्तर पर लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए पंचायत राज संस्थाओं को भी शुरू किया गया है। लेकिन तमाम प्रयासों के बावजूद ग्रामीण गरीबी, बेरोजगारी दर, कम उत्पादन अभी भी मौजूद है। बुनियादी सुविधाओं जैसे कि आजीविका सुरक्षा, स्वच्छता समस्या, शिक्षा, चिकित्सा सुविधा, सड़क आदि के लिए लड़ाई अभी भी जारी है, फिर भी बुनियादी सुविधाओं के मामले में बहुत बड़ा अंतर है जो शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में उपलब्ध है। बुनियादी ग्रामीण विकास में रोजगार, उचित जलापूर्ति और अन्य बुनियादी सुविधाओं के अलावा इन सभी को शामिल किया जाना चाहिए। इन्हें संचालित करने के लिए हाथों की कमी नहीं होगी. यह भरोसा इसलिए भी बनता है कि हमारे देश में विकास के लिए जिस सहयोगात्मक प्रयासों की आवश्यकता है उसे देखते हुए सामाजि संगठनों की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है और वर्तमान में भारत में सक्रिय संगठनों की संख्या 25,000 से 30,000 के करीब है. इन संस्‍थाओं के साथ स्थानीय कार्यकर्ता होते हैं और उनकी पहुँच समाज में काफी भीतर तक होती है, इसलिए अगर हम उन्हें सरकारी योजनाओं के कार्यान्वयन और संचालन में भागीदार बना लें तो जो लक्ष्य हम 73 वर्षों में हासिल नहीं कर पाए हैं, उन्हें अगले 10 वर्षों में हासिल किया जा सकता है.

 

यह समीकरण तभी काम करेगा जब देश के शासन-संचालन में बाबुओं का दबदबा कम किया जाए. इस दिशा में सबसे पहले पद और पदाधिकार के अहंकार को जनता के प्रति जबावदेही और कर्त्तव्य के प्रति कठोरता की दिशा में मोड़ना होगा. सरकारी अनुदान का बंदरबांट कर अपने स्वार्थ की पूर्ति करने वाले कुछेक संस्‍थाओं और उनकी स्वार्थ पूर्ति के साथ अपने स्वार्थ की भी पूर्ति करने वाले सरकारी बाबुओं की मिलीभगत ने अनेक ईमानदार और निष्ठावान सामाजिक संगठनों के रास्ते को कठिन बना दिया.

 

भारत में सरकार ने छठी पंचवर्षीय योजना (1980-85) के दौरान सामाजिक संगठनों की भूमिका का महत्व रेखांकित किया और सातवीं योजना (1985-90) में इनकी सक्रिय भूमिका को स्वीकार किया. विभिन्न समुदायों को आत्मनिर्भर बनाने में विभिन्न सामाजिक संगठनों ने आगे बढ़कर महती भूमिका निभाई है और इसके सकारात्मक तथा मापनीय परिणाम भी प्राप्त हुए. महाराष्ट्र के पालघर में, राजस्थान में, मध्य प्रदेश में और अलग-अलग जनजाति-बहुल इलाकों में विशेषकर शिक्षा के क्षेत्र में शानदार कार्य करने वाले सामाजिक संगठनों की भूमिका किसी से छिपी नहीं है. सामाजिक और आर्थिक उन्नयन की दिशा में रोजगार की योग्यता बढ़ाने, रोजगार के साधन उपलब्ध कराने और इस प्रकार बाज़ार में मांग बढ़ाने में सामाजिक संगठन सरकार के भरोसेमंद सहभागी बन सकते हैं. जब सरकार इस दिशा में सुविचारित ठोस कदमों के साथ आगे बढ़ते हुए अपने हाथ सामाजिक संगठनों की ओर बढ़ाएगी तो स्वतः ही अनेक संगठनों के साथ जो विदेशी धन का लफड़ा पैदा हो जाता है, उसमें भी कमी आयेगी. सरकार का सिरदर्द कम होगा, आम जनता का सामाजिक संगठनों के साथ तालमेल और परस्पर भरोसे का रिश्ता पैदा होगा, इन संगठनों भी व्यवस्था पर भरोसा बढ़ेगा और सभी के सहयोगात्मक सामूहिक प्रयास से भारत अपनी कमजोरियों से बाहर निकल कर सामाजिक, बौद्धिक और आर्थिक रूप से एक नेतृत्वकारी सशक्त शक्ति के रूप में स्थापित होगा.