हिंदी के मशहूर साहित्यकार प्रेमचंद का आज जन्मदिन है. वो 31 जुलाई 1880 में बनारस के लम्ही में पैदा हुए थे. वो अपने समय में बहुत मुखर तरीके से तमाम मुद्दों पर विचार रखते थे. उन पर लिखते थे. उन्होंने धर्म से लेकर सियासत पर खुलकर लिखा. ये भी लिखा पॉलिटिकल पार्टियां धर्म की आड़ लेकर बात का बतंगड़ बनाती हैं और अपना उल्लू सीधा करती हैं.

प्रेमचंद का लेखन अब करीब 100 साल पुराना होने जा रहा है लेकिन अब भी बहुत सामयिक है. जिन बातों को उन्होंने समझा, लिखा और उठाया-वो अब भी करीब वैसी ही लगती हैं. उनका निधन 08 अक्टूबर 1936 को वाराणसी में हुआ. अपनी जिंदगी में उन्होंने जमकर लिखा. सांप्रदायिकता को लेकर उन्होंने लिखा, मैं एक इंसान हूं. जो इन्सानियत रखता हो, इन्सान का काम करता हो, मैं वही हूँ और ऐसे ही लोगों को चाहता हूं. प्रेमचन्द साम्प्रदायिकता को ऐसा पाप मानते थे जिसका कोई प्रायश्चित नहीं.

इस बारे में प्रेमचन्द की दृष्टि पूर्ण वैज्ञानिक रही है. वे कहते हैं, मैं उस धर्म को कभी स्वीकार नहीं करना चाहता जो मुझे यह सिखाता हो कि इन्सानियत, हमदर्दी और भाईचारा सब-कुछ अपने ही धर्म वालों के लिए है, उस दायरे के बाहर जितने लोग हैं सभी गैर हैं, उन्हें जिन्दा रहने का कोई हक नहीं, तो मै उस धर्म से अलग होकर विधर्मी होना ज्यादा पसंद करुंगा.

प्रेमचन्द ने साम्प्रदायिक सौहार्द को बनाए रखने के लिए कई कहानियां लिखीं. जिसमें साम्प्रदायिक झगड़े की बुराई और परिणामों के बारे में बताया. इसमें मुक्तिधन, क्षमा, (मानसरोवर-3) स्मृतिका, पुजारी (मानसरोवर-4) मंत्र हिंसा परमो धर्म (मानसरोवर-5) जिहाद (मानसरोवर-7) ब्रह्म का स्वांग तथा खून सफेद (मानसरोवर-8) ऐसी ही कहानियां हैं, जिसके माध्यम से प्रेमचन्द ने साम्प्रदायिक वैषम्य को आवाज देकर सबतक पहुंचाने की कोशिश की. मंत्र कहानी में उन्होंने एक ऐतिहासिक घटना को माध्यम बनाया कि जब 1920-22 में हिन्दू-मुस्लिम एकता स्थापित हुई तो चारों तरफ लोग खुश हो गए. लेकिन यह खुशी ज्यादा दिनों तक न रह सकी, क्योंकि इसको भंग करने की साजिश ब्रिटिश शासकों के द्वारा होने लगी वह भंग भी कर दिया गया. मुक्तिधन रहमान के द्वारा गाय के प्रति प्रेम दिखाकर हिन्दू-मुस्लिम सोहार्द बनाए रखने का प्रयास किया.

प्रेमचंद ने इस्लामी सभ्यता पर 1925 में लेख लिखा, जो ‘प्रताप’ में प्रकाशित हुआ. हिंदू और मुसलमान दोनों एक हज़ार वर्षों से हिंदुस्तान में रहते चले आये हैं. लेकिन अभी तक एक-दूसरे को समझ नहीं सके. हिंदू के लिए मुसलमान एक रहस्य है और मुसलमान के लिये हिंदू एक मुअम्मा (पहेली). न हिंदू को इतनी फुर्सत है कि इस्लाम के तत्वों की छानबीन करे, न मुसलमान को इतना अवकाश है कि हिंदू-धर्म-तत्वों के सागर में गोते लगाये. दोनों एक दूसरे में बेसिर-पैर की बातों की कल्पना करके सिर-फुटौव्वल करने में आमादा रहते हैं.

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