एक नज़्म 

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मैंने महसूस किया है की यादें 

किसी नई नवेली दुल्हन के मानिंद होती हैं 

जो अक्सर लोगों के सामने 

सहमी और सकुचाई सी खड़ी होती हैं 

मानो किसी मुंजमिद झील का पानी 

और पुरसुकून लम्हात मिलते ही 

उनकी खामोशी आहिस्ता आहिस्ता 

एक नई स र ग म तलाश लेती है 

सियाह रातों से निकल कर 

रौशनी का दामन थाम लेती है 

समझ नहीं पाता आखिर ऐसी कौन सी गिरह है 

जो यादों को बाँध कर रखती है 

इनकी बेवसी को देख कर 

दिल सिमटता हुआ सा लगता है 

अपने अपने माज़ी के दामन से चिपकी 

ज़िंदगी के हर मरहले पे सवाल करती 

गमगीन मोहब्बत के मुक़द्दस अशआर सी 

अनकहे ,अनसुने और अंजाने अल्फ़ाज़ों को ढूंढती 

अपने ही ख्वाबों से बार बार डरती 

साये के मानिंद सफर मे साथ साथ चलती 

ये मज़लूम यादें इतनी खौफजदा क्यों है 

आखिर मैंने इनसे पूछ ही लिया 

तुम्हारे खौफ का राज़ क्या है ?

मेरे भाई ,मेरे दोस्त,मेरे राज़दार 

मेरा खुद पे नहीं है अख़्तियार 

न कोई सुबह,न कोई शाम,न कोई दोपहर

मेरे लिए सब हैं बराबर 

न कोई आईना न कोई पत्थर

तुम जिसे समझते और कहते हो, मेरा डर 

वो डर नहीं ,मेरे ज़हन का तूफान है 

जो बाज़दफा उफनता रहता है 

फ़ुर्कत के मरहलों मे कुछ ख्वाब बुनता रहता है 

सन्नाटों मे सुकून तलाशता रहता है 

शायद हालत –ए-बेख्वाबी मे घुटता रहता है 

इसे बेशक अपने हमराह की तलाश है 

जो इस मसाफ़त मे कहीं गुम हो गया है 

इसलिए अब ये हमसफर बनने से डरता है 

इंसानी रंजिश इसने खूब देखी है 

फ़ितरतों को बदलना भी खूब देखा है 

शायद इसीलिए यह तन्हाई का मुरीद है 

जहां सिर्फ एक चेहरा होता है 

दोस्त तुम्हारी दुनिया मे इक धुंध है 

और् हज़ार चेहरे हैं ,,,,,,,,,,,

(मुंजमिद-जमा हुआ /मरहले -पल /फुर्कत-वियोग /हालत ए-बेखवाबी -अनिद्रा)

- राजेश कुमार सिन्हा 

बांद्रा(वेस्ट),मुंबई-50

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