एक नज़्म 

मै

कई बार 

उनसे तसव्वुर मे  

हमकलाम होता हूँ 

जब भी इस शहर मे 

उदास होता हूँ 

जाने क्यों इस अजनबी  

शहर ने 

मेरे इस दिल को 

इतना तन्हा कर दिया है  

जब भी कुछ लिखता हूँ 

कोरे कागज पे अश्क फ़ेल जाते हैं  

दिल की खलवत मे  

मोहलत नहीं मिलती 

पुरशोर यादों से 

मिलती हैं तो बस

 बेख्वाब आँखें 

जो जागती रहती हैं 

तलब की ख़्वाहिश मे 

जुस्तजू मे 

बस एक अदद 

अश्क-ए-हसरत की 

उस मानूस आवाज़ की 

जज़्बा - ए- इश्क़ की 

ताकि उसे बता सकूँ दर्द के 

कारोबार का हिसाब 

जिसे मै हमेशा साथ रखता हूँ 

मै मुंतज़िर हूँ उनसे सुनने को 

उनकी खामोशियों का राज़ 

शायद कम हो सकें फासले 

खुश हूँ अपने इस दर्द की इंतेहा पे 

यह मेरा वहम नहीं 

अपने इसरार पर यकीन रखता हूँ , , , , , , , , , , , , ,

(इसरार -  हठ, मुंतज़िर - प्रतीक्षारत, मानूस-प्रेम की बोली, खलवत-एकान्त, पुरशोर - कोलाहलपूर्ण, हमकलाम - किसी के साथ बातें करना )

राजेशकुमार सिन्हा 

मुम्बई - 50

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