कविता जीवन दायिनी है 

जब भी अंदर 

कोई खलबली सी मचती है 

एक नई कविता जन्म लेती है 

उसे सहेजने की कोशिश करता हूँ 

पर न जाने क्या होता है 

वह दम तोड़ देती है 

मन उदास सा रहता है 

मित्र सलाह देते हैं 

तनाव न लें,,कविता का क्या 

बनती बिगड़ती रहती है 

फिर नई बन जाएगी 

सिर्फ चंद शब्द तो जोड़ने होते हैं 

कौन सी बड़ी क्रांति करनी है 

मन ही मन सोचता हूँ 

ये लोग अजीब अहमक़ हैं 

काव्य सृजन इनके लिए कुछ नहीं है 

कविता इतनी मेहनत/मशक्कत से बनती है 

इन्हें जरा भी ऐहसास नहीं है 

मेरे कुछ दोस्त तो यहां तक कह देते हैं 

भाई तुम्हारी कविता,कविता नहीं अकविता है 

कई दफा तो ये नींद की गोली का काम करती है 

मुझे वहम हो जाता है 

मै कवि हूँ या अकवि हूँ या नींद की गोली बेचता हूँ 

क्या ये लोग भावो/जज़्बातों/ऐहसासों को कुछ नहीं समझते 

क्या यह इनकी हताशा और निराशा है 

इनके लिए भाषा कुछ भी नहीं है 

मन/तन/स्वप्न/मंगलऔर अमंगल जैसी बातें 

इनकी चिंतन प्रक्रिया मे शामिल नहीं हैं 

फिर कैसे व्यक्त करते हैं ये अपनी रीतती आशाओं को 

अपनी असमर्थ तमन्नाओं को 

साथ साथ चलते अर्थों को 

ग्राह्य शक्ति और अभिव्यक्ति भी तो कुछ होती है 

या सिर्फ दाल रोटी का चक्रव्युह ही जीवन है 

बेशक सूखे गुलाब की पंखुड़ी भी जीवन दे सकती है 

जीवन का गीत बन सकती है 

सिर्फ पंखुड़ियों को समेटने की ज़रूरत होती है 

और यह काम कविता करती है 

मै ठान लेता हूँ 

समझाऊंगा अपने दोस्तों को 

कविता जीवन दायिनी है 

जीवन के हर पन्ने  को अर्थ देती है 

बस इसके करीब आजाओ 

यह सब कुछ दे सकती है,,,,,,

- राजेश कुमार सिन्हा 

बांद्रा(वेस्ट),मुंबई-50

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